Muslims are divided in three group in India . First group of Muslim so rich and educated and this group does not bother about the rest of two groups Middle Class and lowest Class. Middle class of Muslims are fighting and struggling for the rights as well as rising their status in societies and progress but lower class Muslims are under the influence of the religious leader, They left their life on the God. They are illiterate and they do not want to change their life. They believe blindly on the God. Because the religious leader says, you are live in this world on the mercy of the God. Without the direction of the God, No single leaf move here and there. I also believe this idea, but I also believed in hard work and those Muslims understand the both views. They would achieve both worlds i.e. Jannat and present life in the world. But those Muslims are running behind the Jannat and ignoring the present life in the world, they always living in miserable conditions.
Friday, 16 September 2011
Saturday, 10 September 2011
Only place in India where food is cheapest
The only place in India where food is cheapest in Rs.
Tea = 1.00
Soup = 5.50
Daal = 1.50
Meals = 2.00
Chapati = 1.00
Chiken = 24.50
Disa = 4.00
Biryani = 8.00
Fish = 13.00
These items are meant for poor people and is availble at Indian Parliament Conteen. The Salary of those people is Ra. 80,000/- per month without Income Tex.
Tea = 1.00
Soup = 5.50
Daal = 1.50
Meals = 2.00
Chapati = 1.00
Chiken = 24.50
Disa = 4.00
Biryani = 8.00
Fish = 13.00
These items are meant for poor people and is availble at Indian Parliament Conteen. The Salary of those people is Ra. 80,000/- per month without Income Tex.
इस्लाम के बारे में भारतीय ग़ैर-मुस्लिम विद्वानों के विचार
इस्लाम के बारे में भारतीय ग़ैर-मुस्लिम विद्वानों के विचार
विशम्भर नाथ पाण्डे भूतपूर्व राज्यपाल, उड़ीसा
क़ुरआन ने मनुष्य के आध्यात्मिक, आर्थिक और राजकाजी जीवन को जिन मौलिक सिद्धांतों पर क़ायम करना चाहा है उनमें लोकतंत्र को बहुत ऊँची जग हदी गई है और समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व-भावना के स्वर्णिम सिद्धांतों को मानव जीवन की बुनियाद ठहराया गया है।
क़ुरआन ‘‘तौहीद’’ यानी एकेश्वरवाद को दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई बताता है। वह आदमी की ज़िन्दगी के हर पहलू की बुनियाद इसी सच्चाई पर क़ायम करता है। क़ुरआन का कहना है कि जब कुल सृष्टि का ईश्वर एक है तो लाज़मी तौर पर कुल मानव समाज भी उसी ईश्वर की एकता का एक रूप है। आदमी अपनी बुद्धि और अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ सकता इै। इसलिए आदमी का सबसे पहला कर्तव्य यह है कि ईश्वर की एकता को अपने धर्म-ईमान की बुनियाद बनाए और अपने उस मालिक के सामने, जिसने उसे पैदा किया और दुनिया की नेमतें दीं, सर झुकाए। आदमी की रूहानी ज़िन्दगी का यही सबसे पहला उसूल है।
एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर ही आधारित क़ुरआन ने दो तरह के कर्तव्य हर आदमी के सामने रखे हैं—एक, जिन्हें वह ‘हक़ूक़-अल्लाह’ अर्थात ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य कहता है और दूसरे, जिन्हें वह ‘हक़ूक़-उल-अबाद’ अर्थात मानव के प्रति-मानव के कर्तव्य। हक़ू$क़-अल्लाह में नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, आख़रत और देवदूतों (फ़रिश्तों) पर विश्वास जैसी बातें शामिल हैं, जिन्हें हर व्यक्ति देश काल के अनुसार अपने ढंग से पूरा कर सकता है।
क़ुरआन ने इन्हें इन्सान के लिए फ़र्ज़ बताया है इसे ही वास्तविक इबादत (ईश्वर पूजा) कहा है। इन कर्तव्यों के पूरा करने से आदमी में रूहानी शक्ति आती है।
‘हक़ू$क़-अल्लाह’ के साथ ही क़ुरआन ने हक़ू$क़-उल-अबाद’ अर्थात मानव के प्रति मानव के कर्तव्य पर भी ज़ोर दिया है और साफ़ कहा है कि अगर हक़ूक़-अल्लाह के पूरा करने में किसी तरह की कमी रह जाए तो ख़ुदा माफ़ कर सकता है, लेकिन अगर हक़ूक़-उल-अबाद के पूरा करने में ज़र्रा बराबर की कमी रह जाए तो ख़ुदा उसे हरगिज़ माफ़ न करेगा। ऐसे आदमी को इस दुनिया और दूसरी दुनिया, दोनों में, ख़िसारा अर्थात् घाटा उठाना होगा।
क़ुरआन का यह पहला बुनियादी उसूल हुआ।
क़ुरआन का दूसरा उसूल यह है कि हक़ूक़-अल्लाह यानी नमाज़ रोज़ा, ज़कात और हज आदमी के आध्यात्मिक (रूहानी) जीवन और आत्मिक जीवन (Spiritual Life) से संबंध रखते हैं। इसलिए इन्हें ईमान (श्रद्धा), ख़ुलूसे क़ल्ब (शुद्ध हृदय) और बेग़रज़ी (निस्वार्थ भावना) के साथ पूरा करना चाहिए, यानी इनके पूरा करने में अपने लिए कोई निजी या दुनियावी फ़ायदा, ...निगाह में नहीं होनी चाहिए। यह केवल अल्लाह के निकट जाने के लिए और रूहानी शक्ति हासिल करने के लिए हैं ताकि आदमी दीन-धर्म की सीधी राह पर चल सके। अगर इनमें कोई भी स्वार्थ या ख़ुदग़रज़ी आएगी तो इनका वास्तविक उद्देश्य जाता रहेगा और यह व्यर्थ हो जाएँगे।
आदमी की समाजी ज़िन्दगी का पहला फ़र्ज़ क़ुरआन में ग़रीबों, लाचारों, दुखियों और पीड़ितों से सहानुभूति और उनकी सहायता करना बताया गया है। क़ुरआन ने इन्सान के समाजी जीवन की बुनियाद ईश्वर की एकता और इन्सानी भाईचारे पर रखी है। क़ुरआन की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि वह इन्सानियत के, मानवता के, टुकड़े नहीं करता। इस्लाम के इन्सानी भाईचारे की परिधि में कुल मानवजाति, कुल इन्सान शामिल हैं और हर व्यक्ति को सदा सबकी अर्थात् आखिल मानवता की भलाई, बेहतरी और कल्याण का ध्येय अपने सामने रखना चाहिए। क़ुरआन का कहना है कि सारा मानव समाज एक कुटुम्ब है। क़ुरआन की कई आयतों में नबियों और पैग़म्बरों को भी भाई शब्द से संबोधित किया गया है। मुहम्मद साहब हर समय की नमाज़ के बाद आमतौर पर यह कहा करते थे—‘‘मैं साक्षी हूँ कि दुनिया के सब आदमी एक-दूसरे के भाई हैं।’’ यह शब्द इतनी गहराई और भावुकता के साथ उनके गले से निकलते थे कि उनकी आँखों से टप-टप आंसू गिरने लगते थे।
इससे अधिक स्पष्ट और ज़ोरदार शब्दों में मानव-एकता और मानवजाति के एक कुटुम्ब होने का बयान नहीं किया जा सकता। कु़रआन की यह तालीम और इस्लाम के पैग़म्बर की यह मिसाल उन सारे रिवाजों और क़ायदे-क़ानूनों और उन सब क़ौमी, मुल्की, और नसली...गिरोहबन्दियों को एकदम ग़लत और नाजायज़ कर देती है जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से अलग करती हैं और मानव-मानव के बीच भेदभाव और झगड़े पैदा करती हैं।
क़ुरआन ‘‘तौहीद’’ यानी एकेश्वरवाद को दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई बताता है। वह आदमी की ज़िन्दगी के हर पहलू की बुनियाद इसी सच्चाई पर क़ायम करता है। क़ुरआन का कहना है कि जब कुल सृष्टि का ईश्वर एक है तो लाज़मी तौर पर कुल मानव समाज भी उसी ईश्वर की एकता का एक रूप है। आदमी अपनी बुद्धि और अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ सकता इै। इसलिए आदमी का सबसे पहला कर्तव्य यह है कि ईश्वर की एकता को अपने धर्म-ईमान की बुनियाद बनाए और अपने उस मालिक के सामने, जिसने उसे पैदा किया और दुनिया की नेमतें दीं, सर झुकाए। आदमी की रूहानी ज़िन्दगी का यही सबसे पहला उसूल है।
एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर ही आधारित क़ुरआन ने दो तरह के कर्तव्य हर आदमी के सामने रखे हैं—एक, जिन्हें वह ‘हक़ूक़-अल्लाह’ अर्थात ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य कहता है और दूसरे, जिन्हें वह ‘हक़ूक़-उल-अबाद’ अर्थात मानव के प्रति-मानव के कर्तव्य। हक़ू$क़-अल्लाह में नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, आख़रत और देवदूतों (फ़रिश्तों) पर विश्वास जैसी बातें शामिल हैं, जिन्हें हर व्यक्ति देश काल के अनुसार अपने ढंग से पूरा कर सकता है।
क़ुरआन ने इन्हें इन्सान के लिए फ़र्ज़ बताया है इसे ही वास्तविक इबादत (ईश्वर पूजा) कहा है। इन कर्तव्यों के पूरा करने से आदमी में रूहानी शक्ति आती है।
‘हक़ू$क़-अल्लाह’ के साथ ही क़ुरआन ने हक़ू$क़-उल-अबाद’ अर्थात मानव के प्रति मानव के कर्तव्य पर भी ज़ोर दिया है और साफ़ कहा है कि अगर हक़ूक़-अल्लाह के पूरा करने में किसी तरह की कमी रह जाए तो ख़ुदा माफ़ कर सकता है, लेकिन अगर हक़ूक़-उल-अबाद के पूरा करने में ज़र्रा बराबर की कमी रह जाए तो ख़ुदा उसे हरगिज़ माफ़ न करेगा। ऐसे आदमी को इस दुनिया और दूसरी दुनिया, दोनों में, ख़िसारा अर्थात् घाटा उठाना होगा।
क़ुरआन का यह पहला बुनियादी उसूल हुआ।
क़ुरआन का दूसरा उसूल यह है कि हक़ूक़-अल्लाह यानी नमाज़ रोज़ा, ज़कात और हज आदमी के आध्यात्मिक (रूहानी) जीवन और आत्मिक जीवन (Spiritual Life) से संबंध रखते हैं। इसलिए इन्हें ईमान (श्रद्धा), ख़ुलूसे क़ल्ब (शुद्ध हृदय) और बेग़रज़ी (निस्वार्थ भावना) के साथ पूरा करना चाहिए, यानी इनके पूरा करने में अपने लिए कोई निजी या दुनियावी फ़ायदा, ...निगाह में नहीं होनी चाहिए। यह केवल अल्लाह के निकट जाने के लिए और रूहानी शक्ति हासिल करने के लिए हैं ताकि आदमी दीन-धर्म की सीधी राह पर चल सके। अगर इनमें कोई भी स्वार्थ या ख़ुदग़रज़ी आएगी तो इनका वास्तविक उद्देश्य जाता रहेगा और यह व्यर्थ हो जाएँगे।
आदमी की समाजी ज़िन्दगी का पहला फ़र्ज़ क़ुरआन में ग़रीबों, लाचारों, दुखियों और पीड़ितों से सहानुभूति और उनकी सहायता करना बताया गया है। क़ुरआन ने इन्सान के समाजी जीवन की बुनियाद ईश्वर की एकता और इन्सानी भाईचारे पर रखी है। क़ुरआन की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि वह इन्सानियत के, मानवता के, टुकड़े नहीं करता। इस्लाम के इन्सानी भाईचारे की परिधि में कुल मानवजाति, कुल इन्सान शामिल हैं और हर व्यक्ति को सदा सबकी अर्थात् आखिल मानवता की भलाई, बेहतरी और कल्याण का ध्येय अपने सामने रखना चाहिए। क़ुरआन का कहना है कि सारा मानव समाज एक कुटुम्ब है। क़ुरआन की कई आयतों में नबियों और पैग़म्बरों को भी भाई शब्द से संबोधित किया गया है। मुहम्मद साहब हर समय की नमाज़ के बाद आमतौर पर यह कहा करते थे—‘‘मैं साक्षी हूँ कि दुनिया के सब आदमी एक-दूसरे के भाई हैं।’’ यह शब्द इतनी गहराई और भावुकता के साथ उनके गले से निकलते थे कि उनकी आँखों से टप-टप आंसू गिरने लगते थे।
इससे अधिक स्पष्ट और ज़ोरदार शब्दों में मानव-एकता और मानवजाति के एक कुटुम्ब होने का बयान नहीं किया जा सकता। कु़रआन की यह तालीम और इस्लाम के पैग़म्बर की यह मिसाल उन सारे रिवाजों और क़ायदे-क़ानूनों और उन सब क़ौमी, मुल्की, और नसली...गिरोहबन्दियों को एकदम ग़लत और नाजायज़ कर देती है जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से अलग करती हैं और मानव-मानव के बीच भेदभाव और झगड़े पैदा करती हैं।
—‘पैग़म्बर मुहम्मद, कु़रआन और हदीस, इस्लामी दर्शन’
गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली, 1994
गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली, 1994
Friday, 9 September 2011
प्यारे नबी (सल्ल॰) ने औरत को मर्द के बराबर दर्जा दिया
वेनगताचिल्लम अडियार
जन्म: 16, मई 1938
● वरिष्ठ तमिल लेखक; न्यूज़ एडीटर: दैनिक ‘मुरासोली’
● तमिलनाडु के 3 मुख्यमंत्रियों के सहायक
● कलाइममानी अवार्ड (विग जेम ऑफ आर्ट्स) तमिलनाडु सरकार; पुरस्कृत 1982
● 120 उपन्यासों, 13 पुस्तकों, 13 ड्रामों के लेखक
● संस्थापक, पत्रिका ‘नेरोत्तम’
● वरिष्ठ तमिल लेखक; न्यूज़ एडीटर: दैनिक ‘मुरासोली’
● तमिलनाडु के 3 मुख्यमंत्रियों के सहायक
● कलाइममानी अवार्ड (विग जेम ऑफ आर्ट्स) तमिलनाडु सरकार; पुरस्कृत 1982
● 120 उपन्यासों, 13 पुस्तकों, 13 ड्रामों के लेखक
● संस्थापक, पत्रिका ‘नेरोत्तम’
‘‘औरत के अधिकारों से अनभिज्ञ अरब समाज में प्यारे नबी (सल्ल॰) ने औरत को मर्द के बराबर दर्जा दिया। औरत का जायदाद और सम्पत्ति में कोई हक़ न था, आप (सल्ल॰) ने विरासत में उसका हक़ नियत किया। औरत के हक़ और अधिकार बताने के लिए क़ुरआन में निर्देश उतारे गए।
माँ-बाप और अन्य रिश्तेदारों की जायदाद में औरतों को भी वारिस घोषित किया गया। आज सभ्यता का राग अलापने वाले कई देशों में औरत को न जायदाद का हक़ है न वोट देने का। इंग्लिस्तान में औरत को वोट का अधिकार 1928 ई॰ में पहली बार दिया गया। भारतीय समाज में औरत को जायदाद का हक़ पिछले दिनों में हासिल हुआ।
लेकिन हम देखते हैं कि आज से चौदह सौ वर्ष पूर्व ही ये सारे हक़ और अधिकार नबी (सल्ल॰) ने औरतों को प्रदान किए। कितने बड़े उपकारकर्ता हैं आप।
आप (सल्ल॰) की शिक्षाओं में औरतों के हक़ पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है। आप (सल्ल॰) ने ताकीद की कि लोग कर्तव्य से ग़ाफ़िल न हों और न्यायसंगत रूप से औरतों के हक़ अदा करते रहें। आप (सल्ल॰) ने यह भी नसीहत की है कि औरत को मारा-पीटा न जाए।
औरत के साथ कैसा बर्ताव किया जाए, इस संबंध में नबी (सल्ल॰) की बातों का अवलोकन कीजिए:
1. अपनी पत्नी को मारने वाला अच्छे आचरण का नहीं है।
2. तुममें से सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति वह है जो अपनी पत्नी से अच्छा सुलूक करे।
3. औरतों के साथ अच्छे तरीक़े से पेश आने का ख़ुदा हुक्म देता है, क्योंकि वे तुम्हारी माँ, बहन और बेटियाँ हैं।
4. माँ के क़दमों के नीचे जन्नत है।
5. कोई मुसलमान अपनी पत्नी से नफ़रत न करे। अगर उसकी कोई एक आदत बुरी है तो उसकी दूसरी अच्छी आदत को देखकर मर्द को ख़ुश होना चाहिए।
6. अपनी पत्नी के साथ दासी जैसा व्यवहार न करो। उसको मारो भी मत।
7. जब तुम खाओ तो अपनी पत्नी को भी खिलाओ। जब तुम पहनो तो अपनी पत्नी को भी पहनाओ।
8. पत्नी को ताने मत दो। चेहरे पर न मारो। उसका दिल न दुखाओ। उसको छोड़कर न चले जाओ।
9. पत्नी अपने पति के स्थान पर समस्त अधिकारों की मालिक है।
10. अपनी पत्नियों के साथ जो अच्छी तरह बर्ताव करेंगे, वही तुम में सबसे बेहतर हैं।
मर्द को किसी भी समय अपनी काम-तृष्णा की ज़रूरत पेश आ सकती है। इसलिए कि उसे क़ुदरत ने हर हाल में हमेशा सहवास के योग्य बनाया है जबकि औरत का मामला इससे भिन्न है।
माहवारी के दिनों में, गर्भावस्था में (नौ-दस माह), प्रसव के बाद के कुछ माह औरत इस योग्य नहीं होती कि उसके साथ उसका पति संभोग कर सके।
सारे ही मर्दों से यह आशा सही न होगी कि वे बहुत ही संयम और नियंत्रण से काम लेंगे और जब तक उनकी पत्नियाँ इस योग्य नहीं हो जातीं कि वे उनके पास जाएँ, वे काम इच्छा को नियंत्रित रखेंगे। मर्द जायज़ तरीक़े से अपनी ज़रूरत पूरी कर सके, ज़रूरी है कि इसके लिए राहें खोली जाएँ और ऐसी तंगी न रखी जाए कि वह हराम रास्तों पर चलने पर विवश हो। पत्नी तो उसकी एक हो, आशना औरतों की कोई क़ैद न रहे। इससे समाज में जो गन्दगी फैलेगी और जिस तरह आचरण और चरित्रा ख़राब होंगे इसका अनुमान लगाना आपके लिए कुछ मुश्किल नहीं है।
व्यभिचार और बदकारी को हराम ठहराकर बहुस्त्रीवाद की क़ानूनी इजाज़त देने वाला बुद्धिसंगत दीन इस्लाम है।
एक से अधिक शादियों की मर्यादित रूप में अनुमति देकर वास्तव में इस्लाम ने मर्द और औरत की शारीरिक संरचना, उनकी मानसिक स्थितियों और व्यावहारिक आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा है और इस तरह हमारी दृष्टि में इस्लाम बिल्कुल एक वैज्ञानिक धर्म साबित होता है। यह एक हक़ीक़त है, जिस पर मेरा दृढ़ और अटल विश्वास है।
इतिहास में हमें कोई ऐसी घटना नहीं मिलती कि अगर किसी ने इस्लाम क़बूल करने से इन्कार किया तो उसे केवल इस्लाम क़बूल न करने के जुर्म में क़त्ल कर दिया गया हो, लेकिन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच संघर्ष में धर्म की बुनियाद पर बड़े पैमाने पर ख़ून-ख़राबा हुआ। दूर क्यों जाइए, तमिलनाउु के इतिहास ही को देखिए, मदुरै में ज्ञान समुन्द्र के काल में आठ हज़ार समनर मत के अनुयायियों को सूली दी गई, यह हमारा इतिहास है।
अरब में प्यारे नबी (सल्ल॰) शासक थे तो वहाँ यहूदी भी आबाद थे और ईसाई भी, लेकिन आप (सल्ल॰) ने उन पर कोई ज़्यादती नहीं की।
हिन्दुस्तान में मुस्लिम शासकों के ज़माने में हिन्दू धर्म को अपनाने और उस पर चलने की पूर्ण अनुमति थी। इतिहास गवाह है कि इन शासकों ने मन्दिरों की रक्षा और उनकी देखभाल की है।
मुस्लिम फ़ौजकशी अगर इस्लाम को फैलाने के लिए होती तो दिल्ली के मुस्लिम सुल्तान के ख़िलाफ़ मुसलमान बाबर हरगिज़ फ़ौजकशी न करता। मुल्कगीरी उस समय की सर्वमान्य राजनीति थी। मुल्कगीरी का कोई संबंध धर्म के प्रचार से नहीं होता। बहुत सारे मुस्लिम उलमा और सूफ़ी इस्लाम के प्रचार के लिए हिन्दुस्तान आए हैं और उन्होंने अपने तौर पर इस्लाम के प्रचार का काम यहाँ अंजाम दिया, उसका मुस्लिम शासकों से कोई संबंध न था, इसके सबूत में नागोर में दफ़्न हज़रत शाहुल हमीद, अजमेर के शाह मुईनुद्दीन चिश्ती वग़ैरह को पेश किया जा सकता है।
इस्लाम अपने उसूलों और अपनी नैतिक शिक्षाओं की दृष्टि से अपने अन्दर बड़ी कशिश रखता है, यही वजह है कि इन्सानों के दिल उसकी तरफ़ स्वतः खिंचे चले आते हैं। फिर ऐसे दीन को अपने प्रचार के लिए तलवार उठाने की आवश्यकता ही कहाँ शेष रहती है?श्री वेनगाताचिल्लम अडियार ने बाद में (6 जून 1987 को) इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। और ‘अब्दुल्लाह अडियार’ नाम रख लिया था।
श्री अडियार से प्रभावित होकर जिन लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया उनमें उल्लेखनीय विभूतियाँ हैं :
1) श्री कोडिक्कल चेलप्पा, भूतपूर्व ज़िला सचिव, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (अब ‘कोडिक्कल शेख़ अब्दुल्लाह’)
2) वीरभद्रनम, डॉ॰ अम्बेडकर के सहपाठी (अब ‘मुहम्मद बिलाल’)
3) स्वामी आनन्द भिक्खू—बौद्ध भिक्षु (अब ‘मुजीबुल्लाह’)श्री अब्दुल्लाह अडियार के पिता वन्कटचिल्लम और उनके दो बेटों ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया था।
माँ-बाप और अन्य रिश्तेदारों की जायदाद में औरतों को भी वारिस घोषित किया गया। आज सभ्यता का राग अलापने वाले कई देशों में औरत को न जायदाद का हक़ है न वोट देने का। इंग्लिस्तान में औरत को वोट का अधिकार 1928 ई॰ में पहली बार दिया गया। भारतीय समाज में औरत को जायदाद का हक़ पिछले दिनों में हासिल हुआ।
लेकिन हम देखते हैं कि आज से चौदह सौ वर्ष पूर्व ही ये सारे हक़ और अधिकार नबी (सल्ल॰) ने औरतों को प्रदान किए। कितने बड़े उपकारकर्ता हैं आप।
आप (सल्ल॰) की शिक्षाओं में औरतों के हक़ पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है। आप (सल्ल॰) ने ताकीद की कि लोग कर्तव्य से ग़ाफ़िल न हों और न्यायसंगत रूप से औरतों के हक़ अदा करते रहें। आप (सल्ल॰) ने यह भी नसीहत की है कि औरत को मारा-पीटा न जाए।
औरत के साथ कैसा बर्ताव किया जाए, इस संबंध में नबी (सल्ल॰) की बातों का अवलोकन कीजिए:
1. अपनी पत्नी को मारने वाला अच्छे आचरण का नहीं है।
2. तुममें से सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति वह है जो अपनी पत्नी से अच्छा सुलूक करे।
3. औरतों के साथ अच्छे तरीक़े से पेश आने का ख़ुदा हुक्म देता है, क्योंकि वे तुम्हारी माँ, बहन और बेटियाँ हैं।
4. माँ के क़दमों के नीचे जन्नत है।
5. कोई मुसलमान अपनी पत्नी से नफ़रत न करे। अगर उसकी कोई एक आदत बुरी है तो उसकी दूसरी अच्छी आदत को देखकर मर्द को ख़ुश होना चाहिए।
6. अपनी पत्नी के साथ दासी जैसा व्यवहार न करो। उसको मारो भी मत।
7. जब तुम खाओ तो अपनी पत्नी को भी खिलाओ। जब तुम पहनो तो अपनी पत्नी को भी पहनाओ।
8. पत्नी को ताने मत दो। चेहरे पर न मारो। उसका दिल न दुखाओ। उसको छोड़कर न चले जाओ।
9. पत्नी अपने पति के स्थान पर समस्त अधिकारों की मालिक है।
10. अपनी पत्नियों के साथ जो अच्छी तरह बर्ताव करेंगे, वही तुम में सबसे बेहतर हैं।
मर्द को किसी भी समय अपनी काम-तृष्णा की ज़रूरत पेश आ सकती है। इसलिए कि उसे क़ुदरत ने हर हाल में हमेशा सहवास के योग्य बनाया है जबकि औरत का मामला इससे भिन्न है।
माहवारी के दिनों में, गर्भावस्था में (नौ-दस माह), प्रसव के बाद के कुछ माह औरत इस योग्य नहीं होती कि उसके साथ उसका पति संभोग कर सके।
सारे ही मर्दों से यह आशा सही न होगी कि वे बहुत ही संयम और नियंत्रण से काम लेंगे और जब तक उनकी पत्नियाँ इस योग्य नहीं हो जातीं कि वे उनके पास जाएँ, वे काम इच्छा को नियंत्रित रखेंगे। मर्द जायज़ तरीक़े से अपनी ज़रूरत पूरी कर सके, ज़रूरी है कि इसके लिए राहें खोली जाएँ और ऐसी तंगी न रखी जाए कि वह हराम रास्तों पर चलने पर विवश हो। पत्नी तो उसकी एक हो, आशना औरतों की कोई क़ैद न रहे। इससे समाज में जो गन्दगी फैलेगी और जिस तरह आचरण और चरित्रा ख़राब होंगे इसका अनुमान लगाना आपके लिए कुछ मुश्किल नहीं है।
व्यभिचार और बदकारी को हराम ठहराकर बहुस्त्रीवाद की क़ानूनी इजाज़त देने वाला बुद्धिसंगत दीन इस्लाम है।
एक से अधिक शादियों की मर्यादित रूप में अनुमति देकर वास्तव में इस्लाम ने मर्द और औरत की शारीरिक संरचना, उनकी मानसिक स्थितियों और व्यावहारिक आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा है और इस तरह हमारी दृष्टि में इस्लाम बिल्कुल एक वैज्ञानिक धर्म साबित होता है। यह एक हक़ीक़त है, जिस पर मेरा दृढ़ और अटल विश्वास है।
इतिहास में हमें कोई ऐसी घटना नहीं मिलती कि अगर किसी ने इस्लाम क़बूल करने से इन्कार किया तो उसे केवल इस्लाम क़बूल न करने के जुर्म में क़त्ल कर दिया गया हो, लेकिन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच संघर्ष में धर्म की बुनियाद पर बड़े पैमाने पर ख़ून-ख़राबा हुआ। दूर क्यों जाइए, तमिलनाउु के इतिहास ही को देखिए, मदुरै में ज्ञान समुन्द्र के काल में आठ हज़ार समनर मत के अनुयायियों को सूली दी गई, यह हमारा इतिहास है।
अरब में प्यारे नबी (सल्ल॰) शासक थे तो वहाँ यहूदी भी आबाद थे और ईसाई भी, लेकिन आप (सल्ल॰) ने उन पर कोई ज़्यादती नहीं की।
हिन्दुस्तान में मुस्लिम शासकों के ज़माने में हिन्दू धर्म को अपनाने और उस पर चलने की पूर्ण अनुमति थी। इतिहास गवाह है कि इन शासकों ने मन्दिरों की रक्षा और उनकी देखभाल की है।
मुस्लिम फ़ौजकशी अगर इस्लाम को फैलाने के लिए होती तो दिल्ली के मुस्लिम सुल्तान के ख़िलाफ़ मुसलमान बाबर हरगिज़ फ़ौजकशी न करता। मुल्कगीरी उस समय की सर्वमान्य राजनीति थी। मुल्कगीरी का कोई संबंध धर्म के प्रचार से नहीं होता। बहुत सारे मुस्लिम उलमा और सूफ़ी इस्लाम के प्रचार के लिए हिन्दुस्तान आए हैं और उन्होंने अपने तौर पर इस्लाम के प्रचार का काम यहाँ अंजाम दिया, उसका मुस्लिम शासकों से कोई संबंध न था, इसके सबूत में नागोर में दफ़्न हज़रत शाहुल हमीद, अजमेर के शाह मुईनुद्दीन चिश्ती वग़ैरह को पेश किया जा सकता है।
इस्लाम अपने उसूलों और अपनी नैतिक शिक्षाओं की दृष्टि से अपने अन्दर बड़ी कशिश रखता है, यही वजह है कि इन्सानों के दिल उसकी तरफ़ स्वतः खिंचे चले आते हैं। फिर ऐसे दीन को अपने प्रचार के लिए तलवार उठाने की आवश्यकता ही कहाँ शेष रहती है?श्री वेनगाताचिल्लम अडियार ने बाद में (6 जून 1987 को) इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। और ‘अब्दुल्लाह अडियार’ नाम रख लिया था।
श्री अडियार से प्रभावित होकर जिन लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया उनमें उल्लेखनीय विभूतियाँ हैं :
1) श्री कोडिक्कल चेलप्पा, भूतपूर्व ज़िला सचिव, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (अब ‘कोडिक्कल शेख़ अब्दुल्लाह’)
2) वीरभद्रनम, डॉ॰ अम्बेडकर के सहपाठी (अब ‘मुहम्मद बिलाल’)
3) स्वामी आनन्द भिक्खू—बौद्ध भिक्षु (अब ‘मुजीबुल्लाह’)श्री अब्दुल्लाह अडियार के पिता वन्कटचिल्लम और उनके दो बेटों ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया था।
—‘इस्लाम माय फ़सिनेशन’
एम॰एम॰आई॰ पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 2007
एम॰एम॰आई॰ पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 2007
Wednesday, 7 September 2011
आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता
आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता
आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता, वह केवल इन्सानियत के दुशमन होते हैं। जब-जब उन्होंने कुकृत्य किया है। उससे केवल मानवता ही घायल हुई है और इन्सानियत को नुकसान पहुंचा है। उन्होंने अपने कृत्यों से आज तक प्रशंसा की बिजाये सभ्य समाज से नफ़रत ही अर्जित की है। जबकि सभी धर्मों के धर्म शास्त्र में मानवता की सेवा और इन्सानियत की धारणा को श्रेष्टतम स्थान प्रधान किया गया है। आतंकवादियों के कल किये गए, दिल्ली हाई कोर्ट के गेट नं. 5 पर बम विस्फोट से एक बार फिर मानवता और इन्सानियत तार-तार हुई हैं। ऐसे में सभी देश-वासियों की जिम्मेदारी बनती है कि वो भेड़ की खाल में छिपे भेड़ियों को पहचाने और उनको सजा दिलाने में सरकार का सहयोग करें ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनावृति न हो। यदि हम ऐसे समय में एक दूसरे पर दोषारोपण ही करते रहेगे। तो वो समाज में आरजकता और सरकार के प्रति अविश्वास की भावना पैदा करने में कामयाब हो जाएंगे।
आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता, वह केवल इन्सानियत के दुशमन होते हैं। जब-जब उन्होंने कुकृत्य किया है। उससे केवल मानवता ही घायल हुई है और इन्सानियत को नुकसान पहुंचा है। उन्होंने अपने कृत्यों से आज तक प्रशंसा की बिजाये सभ्य समाज से नफ़रत ही अर्जित की है। जबकि सभी धर्मों के धर्म शास्त्र में मानवता की सेवा और इन्सानियत की धारणा को श्रेष्टतम स्थान प्रधान किया गया है। आतंकवादियों के कल किये गए, दिल्ली हाई कोर्ट के गेट नं. 5 पर बम विस्फोट से एक बार फिर मानवता और इन्सानियत तार-तार हुई हैं। ऐसे में सभी देश-वासियों की जिम्मेदारी बनती है कि वो भेड़ की खाल में छिपे भेड़ियों को पहचाने और उनको सजा दिलाने में सरकार का सहयोग करें ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनावृति न हो। यदि हम ऐसे समय में एक दूसरे पर दोषारोपण ही करते रहेगे। तो वो समाज में आरजकता और सरकार के प्रति अविश्वास की भावना पैदा करने में कामयाब हो जाएंगे।
आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता
आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता, वह केवल इन्सानियत के दुशमन होते हैं। जब-जब उन्होंने कुकृत्य किया है। उससे केवल मानवता ही घायल हुई है और इन्सानियत को नुकसान पहुंचा है। उन्होंने अपने कृत्यों से आज तक प्रशंसा की बिजाये सभ्य समाज से नफ़रत ही अर्जित की है। जबकि सभी धर्मों के धर्म शास्त्र में मानवता की सेवा और इन्सानियत की धारणा को श्रेष्टतम स्थान प्रधान किया गया है। आतंकवादियों के कल किये गए, दिल्ली हाई कोर्ट के गेट नं. 5 पर बम विस्फोट से एक बार फिर मानवता और इन्सानियत तार-तार हुई हैं। ऐसे में सभी देश-वासियों की जिम्मेदारी बनती है कि वो भेड़ की खाल में छिपे भेड़ियों को पहचाने और उनको सजा दिलाने में सरकार का सहयोग करें ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनावृति न हो। यदि हम ऐसे समय में एक दूसरे पर दोषारोपण ही करते रहेगे। तो वो समाज में आरजकता और सरकार के प्रति अविश्वास की भावना पैदा करने में कामयाब हो जाएंगे।
इस्लाम के बारे में भारतीय ग़ैर-मुस्लिम विद्वानों के विचार
प्रोफ़ेसर के॰ एस॰ रामाकृष्णा राव (अध्यक्ष, दर्शन-शास्त्र विभाग, राजकीय कन्या विद्यालय मैसूर, कर्नाटक)
‘‘पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षाओं का ही यह व्यावहारिक गुण है, जिसने वैज्ञानिक प्रवृत्ति को जन्म दिया। इन्हीं शिक्षाओं ने नित्य के काम-काज और उन कामों को भी जो सांसारिक काम कहलाते हैं आदर और पवित्राता प्रदान की। क़ुरआन कहता है कि इन्सान को ख़ुदा की इबादत के लिए पैदा किया गया है, लेकिन ‘इबादत’ (पूजा) की उसकी अपनी अलग परिभाषा है। ख़ुदा की इबादत केवल पूजा-पाठ आदि तक सीमित नहीं, बल्कि हर वह कार्य जो अल्लाह के आदेशानुसार उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने तथा मानव-जाति की भलाई के लिए किया जाए इबादत के अंतर्गत आता है। इस्लाम ने पूरे जीवन और उससे संबद्ध सारे मामलों को पावन एवं पवित्र घोषित किया है। शर्त यह है कि उसे ईमानदारी, न्याय और नेकनियती के साथ किया जाए। पवित्र और अपवित्र के बीच चले आ रहे अनुचित भेद को मिटा दिया। क़ुरआन कहता है कि अगर तुम पवित्र और स्वच्छ भोजन खाकर अल्लाह का आभार स्वीकार करो तो यह भी इबादत है। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को खाने का एक लुक़्मा खिलाता है तो यह भी नेकी और भलाई का काम है और अल्लाह के यहाँ वह इसका अच्छा बदला पाएगा। पैग़म्बर की एक और हदीस है—‘‘अगर कोई व्यक्ति अपनी कामना और ख़्वाहिश को पूरा करता है तो उसका भी उसे सवाब मिलेगा। शर्त यह है कि इसके लिए वही तरीक़ा अपनाए जो जायज़ हो।’’ एक साहब जो आपकी बातें सुन रहे थे, आश्चर्य से बोले, ‘‘हे अल्लाह के पैग़म्बर वह तो केवल अपनी इच्छाओं और अपने मन की कामनाओं को पूरा करता है। आपने उत्तर दिया, ‘यदि उसने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अवैध तरीक़ों और साधनों को अपनाया होता तो उसे इसकी सज़ा मिलती, तो फिर जायज़ तरीक़ा अपनाने पर उसे इनाम क्यों नहीं मिलना चाहिए?धर्म की इस नयी धारणा ने कि, ‘धर्म का विषय पूर्णतः अलौकिक जगत के मामलों तक सीमित न रहना चाहिए, बल्कि इसे लौकिक जीवन के उत्थान पर भी ध्यान देना चाहिए; नीति-शास्त्रा और आचार-शास्त्र के नए मूल्यों एवं मान्यताओं को नई दिशा दी। इसने दैनिक जीवन में लोगों के सामान्य आपसी संबंधों पर स्थाई प्रभाव डाला। इसने जनता के लिए गहरी शक्ति का काम किया, इसके अतिरिक्त लोगों के अधिकारों और कर्तव्यों की धारणाओं को सुव्यवस्थित करना और इसका अनपढ़ लोगों और बुद्धिमान दार्शनिकों के लिए समान रूप से ग्रहण करने और व्यवहार में लाने के योग्य होना पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं। यहाँ यह बात सतर्कता के साथ दिमाग़ में आ जानी चाहिए कि भले कामों पर ज़ोर देने का अर्थ यह नहीं है कि इसके लिए धार्मिक आस्थाओं की पवित्रता एवं शुद्धता को कु़र्बान किया गया है। ऐसी बहुत-सी विचारधाराएँ हैं, जिनमें या तो व्यावहारिता के महत्व की बलि देकर आस्थाओं ही को सर्वोपरि माना गया है या फिर धर्म की शुद्ध धारणा एवं आस्था की परवाह न करके केवल कर्म को ही महत्व दिया गया है। इनके विपरीत इस्लाम सत्य आस्था एवं सतकर्म (के सामंजस्य) के नियम पर आधारित है। यहाँ साधन भी उतना ही महत्व रखते हैं जितना लक्ष्य। लक्ष्यों को भी वही महत्ता प्राप्त है जो साधनों को प्राप्त है। यह एक जैव इकाई की तरह है, इसके जीवन और विकास का रहस्य इनके आपस में जुड़े रहने में निहित है। अगर ये एक-दूसरे से अलग होते हैं तो ये क्षीण और विनष्ट होकर रहेंगे। इस्लाम में ईमान और अमल को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। सत्य ज्ञान को सत्कर्म में ढल जाना चाहिए। ताकि अच्छे फल प्राप्त हो सवें$। ‘जो लोग ईमान रखते हैं और नेक अमल करते हैं, केवल वे ही स्वर्ग में जा सकेंगे’ यह बात क़ुरआन में कितनी ही बार दोहराई गयी है। इस बात को पचास बार से कम नहीं दोहराया गया है। सोच-विचार और ध्यान पर उभारा अवश्य गया है, लेकिन मात्र ध्यान और सोच-विचार ही लक्ष्य नहीं है। जो लोग केवल ईमान रखें, लेकिन उसके अनुसार कर्म न करें उनका इस्लाम में कोई मक़ाम नहीं है। जो ईमान तो रखें लेकिन कुकर्म भी करें उनका ईमान क्षीण है। ईश्वरीय क़ानून मात्र विचार-पद्धति नहीं, बल्कि वह एक कर्म और प्रयास का क़ानून है। यह दीन (धर्म) लोगों के लिए ज्ञान से कर्म और कर्म से परितोष द्वारा स्थाई एवं शाश्वत उन्नति का मार्ग दिखलाता है।
लेकिन वह सच्चा ईमान क्या है, जिससे सत्कर्म का आविर्भाव होता है, जिसके फलस्वरूप पूर्ण परितोष प्राप्त होता है? इस्लाम का बुनियादी सिद्धांत ऐकेश्वरवाद है ‘अल्लाह बस एक ही है, उसके अतिरिक्त कोई इलाह नहीं’ इस्लाम का मूल मंत्र है। इस्लाम की तमाम शिक्षाएँ और कर्म इसी से जुड़े हुए हैं। वह केवल अपने अलौकिक व्यक्तित्व के कारण ही अद्वितीय नहीं, बल्कि अपने दिव्य एवं अलौकिक गुणों एवं क्षमताओं की दृष्टि से भी अनन्य और बेजोड़ है।’’
लेकिन वह सच्चा ईमान क्या है, जिससे सत्कर्म का आविर्भाव होता है, जिसके फलस्वरूप पूर्ण परितोष प्राप्त होता है? इस्लाम का बुनियादी सिद्धांत ऐकेश्वरवाद है ‘अल्लाह बस एक ही है, उसके अतिरिक्त कोई इलाह नहीं’ इस्लाम का मूल मंत्र है। इस्लाम की तमाम शिक्षाएँ और कर्म इसी से जुड़े हुए हैं। वह केवल अपने अलौकिक व्यक्तित्व के कारण ही अद्वितीय नहीं, बल्कि अपने दिव्य एवं अलौकिक गुणों एवं क्षमताओं की दृष्टि से भी अनन्य और बेजोड़ है।’’
—‘मुहम्मद, इस्लाम के पैग़म्बर’
मधुर संदेश संगम, नई दिल्ली, 1990
मधुर संदेश संगम, नई दिल्ली, 1990
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